Friday, January 20, 2012

‘ख़तमे नुबूव्वत‘ - Maulana Wahiduddin Khan

मौलाना वहीदुददीन ख़ान साहब एक गहरी नज़र के मालिक हैं। इस्लामी सिद्धांतों को वक्त की ज़बान में बयान करना उनकी ख़ास ख़ूबी है। अक्तूबर 2011 का अलरिसाला उर्दू ‘ख़तमे नुबूव्वत‘ के सब्जेक्ट पर था। इस सब्जेक्ट पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और बहुत कुछ आइंदा भी लिखा जाएगा लेकिन मौलाना ने ख़तमे नुबूव्वत के कुछ पहलुओं पर एक अलग एंगल से रौशनी डाली है। उनके इस ख़ुसूसी शुमारे को बहुत पसंद किया गया तो इसे कुछ तरमीम के साथ एक छोटे से बुकलेट की शक्ल में पब्लिश भी कर दिया गया है। मौलाना ज़कवान नदवी साहब ने उस बुकलेट की पीडीएफ़ कॉपी हमें भेजी है। जिसका हिंदी तर्जुमा किया जा रहा है। भाई ऐजाज़ उल हक़ साहब ने इस हिंदी अनुवाद के लिए एक ख़ूबसूरत टाइटिल भी बना दिया है। हमारे दिल में ख़याल आया कि क्यों न इस ख़ूबसूरत टाइटिल को ‘अल-रिसाला हिंदी‘ के ब्लॉग के साइड में लगा दिया जाए.
लिहाज़ा पूरे मज़मून का एक हिस्सा यहां पेश किया जा रहा है और जैसे ही काम मुकम्मल होगा तो उसे भी इस ब्लॉग पर पेश किया जाएगा।
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ख़त्मे नुबूव्वत
नुबूव्वते मुहम्मदी का एक इल्मी और तारीख़ी मुताला

इस्लामी अक़ीदे के मुताबिक़ पैग़म्बरों की आमद का सिलसिला उसी वक्त से शुरू हो गया जबकि इंसान को पैदा करके उसे मौजूदा ज़मीन पर आबाद किया गया है। आदम पहले इंसान थे और पहले पैग़म्बर भी। (क़ुरआन 2, 33), इसके बाद हर दौर और हर नस्ल में लगातार पैग़म्बर आते रहे और वे लोगों को ख़ुदा का पैग़ाम देते रहे। (क़ुरआन 23, 24), 7वीं सदी ईस्वी के शुरूआती दौर में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़ुहूर हुआ। आप स. पर ख़ुदा ने अपनी किताब क़ुरआन उतारी। इस किताब में यह ऐलान कर दिया गया कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और इसी के साथ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नबियों के ख़ातम (क़ुरआन 33, 40) की हैसियत रखते हैं।
ख़ातम या सील (Seal) के माअना किसी चीज़ को आखि़री तौर पर मुहरबंद करने के हैं, यानि उसका ऐसा ख़ात्मा जिसके बाद उसमें किसी और चीज़ का इज़ाफ़ा मुमकिन न हो।
Seal :To close completely
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने बाद ख़त्मे नुबूव्वत का ऐलान करते हुए फ़रमाया कि ‘ला नबिय्या बाअदि‘ (सही बुख़ारी, हदीस नं. 3455) यानि मैं ख़ुदा का आखि़री पैग़म्बर हूं, मेरे बाद कोई और पैग़म्बर आने वाला नहीं।
ख़त्मे नुबूव्वत का मतलब नुबूव्वत की ज़रूरत ख़त्म होने से है। मुहम्मद अरबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद नुबूव्वत का सिलसिला इसलिए ख़त्म कर दिया गया कि आपके बाद नए नबी की आमद की ज़रूरत बाक़ी न रही। जैसा कि मालूम है, मुहम्मद अरबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लाए हुए दीन के साथ इस्तस्ना (अपवाद) के तौर पर ऐसा हुआ कि वह पूरे तौर पर महफ़ूज़ हो गया और जब अल्लाह का दीन महफ़ूज़ हो जाए तो उसके बाद यही महफ़ूज़ दीन रब की हिदायत को हासिल करने का मुस्तनद ज़रिया (Authentic source) बन जाता है। ख़ुदा की हिदायत को जानने के लिए अस्ल ज़रूरत महफ़ूज़ दीन की है न कि पैग़म्बर की। क़ुरआन की एक आयत में इस हक़ीक़त को साफ़ तौर पर बयान कर दिया गया है।
क़ुरआन की सूरह अलमायदा में एक आयत है, जिसके बारे में सही हदीसों में आया है कि वह क़ुरआन की आखि़री आयत है। वह आयत यह है- ‘अलयौउमा अक्मल्तु लकुम दीनुकुम व-अत्मम्तु अलैइकुम निअमति व-रज़ीतु-लकुमुल इस्लामा दीना‘ (5, 3)
क़ुरआन की इस आयत के 3 जुज़ हैं-
1. आज मैंने तुम्हारे दीन को पूरा कर दिया यानि यह आयत क़ुरआन की आखि़री आयत है। इस आयत के साथ क़ुरआन का उतरना मुकम्मल हो गया।
2. मैंने तुम्हारे ऊपर अपनी नेमत को पूरा कर दिया यानि क़ुरआन के गिर्द असहाबे रसूल की एक मज़बूत टीम जमा हो गई, जो क़ुरआन की हिफ़ाज़त की ज़ामिन है।
3. मैंने इस्लाम को दीन की हैसियत से तुम्हारे लिए पसंद कर लिया यानि अब इस्लाम को हमेशा के लिए ख़ुदा के मुस्तनद दीन की हैसियत हासिल हो गई।
क़ुरआन में पच्चीस पैग़म्बरों का ज़िक्र है। हदीस के मुताबिक़ पुराने ज़माने में जो पैग़म्बर दुनिया में आए, उनकी तादाद 1 लाख 24 हज़ार थी, मगर उन पैग़म्बरों पर बहुत कम लोग ईमान लाए। इस वजह से उन पैग़म्बरों के साथ कोई मज़बूत टीम न बन सकी, जो उनके बाद उनकी लाई हुई किताब की हिफ़ाज़त कर सके। चुनांचे पिछले पैग़म्बरों की लाई हुई किताबें और उनके सहीफ़े महफ़ूज़ न रह सके।
आखि़री ज़माने में आने वाले पैग़म्बर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब का मामला एक इस्तस्नाई मामला (अपवाद) है। आप 570 ईस्वी में अरब के शहर मक्का में पैदा हुए। उस वक्त यहां जो लोग (बनू इस्माईल) आबाद थे। उनकी परवरिश बिगड़ी हुई सभ्यता से दूर रेगिस्तानी माहौल में हुई थी। इस वजह से वे अपनी अस्ल फ़ितरत (प्रकृति) पर क़ायम थे। यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इस्तस्नाई तौर पर साथ देने वालों की बड़ी तादाद हासिल हो गई। बाइबिल में इस इस्तस्नाई वाक़ये को भविष्यवाणी के तौर पर इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है-
He came with ten thousands of saints (Deoteronomy 33, 2)

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पहली सदी हिजरी में मक्का को छोड़कर मदीना जाना पड़ा। हिजरत (622 ई.) के आठवें साल आप फ़ातेहाना तौर पर मक्का में दाखि़ल हुए। उस वक्त आपके साथ 10 हज़ार सहाबा मौजूद थे। इसके बाद अपनी वफ़ात से तक़रीबन ढाई महीने पहले जब आपने आखि़री हज अदा किया और अरफ़ात के मैदान में अपने अस्हाब को खि़ताब फ़रमाया, उस वक्त आपके पास सहाबा की तादाद 1 लाख से ज़्यादा थी। इसके बाद 632 ईस्वी में जब मदीने में आपकी वफ़ात हुई, उस वक्त अरब के तक़रीबन तमाम लोग इस्लाम में दाखि़ल हो चुके थे और आपके सहाबा की तादाद 2 लाख से ज़्यादा हो गई थी।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इस्तस्नाई तौर पर यह मामला हुआ कि आपको इतनी तादाद में भरोसेमंद साथी मिल गए। यह एक इन्तेहाई ताक़तवर टीम थी।
इतिहासकारों की गवाही के मुताबिक़ इस टीम का हर आदमी एक हीरो (Hero) हैसियत रखता था। उस वक्त अरब के बाहर दो बड़े साम्राज्य मौजूद थे - बाज़न्तीनी एम्पायर और सासानी एम्पायर (Byzantine Empire & Sassanid Empire) ये दोनों एम्पायर इस्लामी सल्तनत के खि़लाफ़ हो गए। इस तरह दोनों एम्पायर के दरम्यान टकराव हुआ। इस टकराव का नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों की जीत हुई और ये दोनों एम्पायर ख़त्म हो गए। यही वह अज़ीम वाक़या है जिसकी भविष्यवाणी बाइबिल में इन अल्फ़ाज़ में की गई है-
And the everlasting mountains were scattered. Habakkuk 3, 6)

इस तरह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के बहुत जल्द बाद एक बड़ी इस्लामी सल्तनत क़ायम हो गई, जो इस्लाम की पुश्त पर एक मज़बूत सियासी ताक़त की हैसियत रखती थी। असहाबे रसूल और अहले इस्लाम का यह सियासी ग़लबा इतिहास का एक इस्तस्नाई वाक़या था। इतिहासकारों ने आम तौर इसे क़ुबूल किया है। एक हिंदुस्तानी इतिहासकार एम. एन. रॉय (मृत्यु 1954) की एक किताब ; (The Historical Role of Islam) पहली बार 1939 में दिल्ली से पब्लिश हुई। इस किताब में उन्होंने इस्लामी इंक़लाब का ज़िक्र करते हुए उसे तमाम चमत्कारों से बड़ा चमत्कार क़रार दिया है-
The expantion of Islam is the most miraculous of all miracles. (p. 4)

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के बाद उनके सहाबा क़ुरआन की हिफ़ाज़त के काम में जुट गए। क़ुरआन को याद करना, क़ुरआन को लिखना, क़ुरआन का चर्चा करना, यही उनका सबसे बड़ा मशग़ला बन गया। इस तरह असहाबे रसूल की जमाअत गोया कि एक ज़िंदा लायब्रेरी बन गई। फिर जब मुस्लिम सल्तनत क़ायम हुई तो हिफ़ाज़ते क़ुरआन की मुहिम को एक सियासी ताक़त की ताईद भी हासिल हो गई। हिफ़ाज़ते क़ुरआन का यह सिलसिला तक़रीबन 1 हज़ार साल तक बिना रूके लगातार चलता रहा। यह किसी किताब की हिफ़ाज़त का एक इस्तस्नाई मामला था जो पुराने ज़माने में किसी भी किताब के साथ पेश नहीं आया, न किसी दुनियावी किताब के साथ और न किसी दीनी किताब के साथ।

हिफ़ाज़ते क़ुरआन
पिछले ज़माने में इंसानों की रहनुमाई के लिए जो पैग़म्बर आए, वे सब अपने साथ ख़ुदा की किताब और सहीफ़े लाए मगर ये किताबें और सहीफ़े बाद में महफ़ूज़ न रह सके। इसकी वजह यह थी कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पहले किसी भी पैग़म्बर के गिर्द उसके साथियों की कोई मज़बूत टीम इकठ्ठा न हो सकी। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इस्तस्नाई तौर पर ऐसा हुआ कि आपको अपने मानने वालों (followers) की एक मज़बूत टीम हासिल हो गई। यह टीम क़ुरआन की हिफ़ाज़त की ज़ामिन बन गई।
एक मुस्तशरिक़ (orientalist) इस मामले का गहरा मुताला करने के बाद लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के फ़ौरन बाद आपके सहाबा हिफ़ाज़ते क़ुरआन के लिए सरगर्म हो गए। उन्होंने इस मक़सद के लिए इतिहास में पहली बार डबल चेकिंग सिस्टम (double checking system) तरीक़ा अख्तियार किया। यह एक ऐसा तरीक़ा था जिसके बाद क़ुरआन की हिफ़ाज़त में किसी क़िस्म का अंदेशा सिरे से बाक़ी नहीं रहता।
632 ईस्वी में मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात हुई तो उस वक्त हज़ारों की तादाद में ऐसे असहाबे रसूल मौजूद थे, जिन्हें पूरा क़ुरआन बख़ूबी तौर पर याद था। नीज़ यह कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीक़ा यह था कि जब भी क़ुरआन का कोई हिस्सा उतरता तो आप उसी वक्त उसे पुराने तर्ज़ के काग़ज़ (क़िरतास) पर लिखवा देते। अस्हाबे रसूल ने यह किया ज़ैद बिन साबित अंसारी (वफ़ात 665 ई.) की क़यादत में एक टीम बनाई। इस टीम ने क़ुरआन की तमाम तहरीरों को इकठ्ठा किया। इसके बाद उन्होंने यह किया कि क़ुरआन के लिखित भंडार का मिलान हाफ़्ज़े (memory) से किया और हाफ़्ज़े का मिलान लिखित भंडार से किया। इस डबल चेकिंग के बाद उन्होंने क़ुरआन का एक मुस्तनद नुस्ख़ा (authentic copy) लिख कर तैयार किया। यह नुस्ख़ा चौकोर सूरत में था। इसलिए उसे रबआ (square) कहा जाता था। यह रबआ क़ुरआन का मुस्तनद नुस्ख़ा क़रार पाया। लोगों ने इस नुस्ख़े की मज़ीद नक़लें तैयार कीं। इस तरह वह मुस्लिम दुनिया में हर तरफ़ फैल गया।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के बाद इस्लाम मुसलसल तौर पर एक ज़िंदा मौज़ू बन गया, अहले इस्लाम, एशिया और अफ्ऱीक़ा के दरम्यान एक बड़े रक़बे में हर जगह फैल गया। इन लोगों की तक़रीर और तहरीर का विषय इस्लाम था। क़ुरआन की किताबत, क़ुरआन की तफ़सीर, हदीस की तदवीन, हदीस की शरह, पैग़म्बरे इस्लाम की सीरत, असहाबे रसूल के हालात, इस्लाम की तारीख़, फ़िक़ह की तरतीब व व तदवीन वग़ैरह। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के बाद सैकड़ों साल तक ये मौज़ूआत लाखों अहले इस्लाम के दरम्यान तक़रीर और तहरीर का मौज़ू बने रहे। दावतो तब्लीग़ का काम क़ुरआन ही के ज़रिये किया जाता था, इसलिए दावतो तब्लीग़ के दौरान भी मुसलसल तौर पर क़ुरआन को पढ़ने और सुनाने का अमल जारी रहा। यह एक डबल हिफ़ाज़त का मामला था। इस अमल के दौरान एक तरफ़ क़ुरआन और हदीस की हिफ़ाज़त हुई और उसी के साथ अरबी ज़बान एक ज़िंदा और महफ़ूज़ ज़बान बनती चली गई।
यह सिलसिला जारी रहा यहां तक कि 18वीं सदी ईस्वी में प्रिंटिंग प्रेस का दौर आ गया। फ्ऱांस का हुक्मरां नेपोलियन (वफ़ात 1821) 1798 में मिस्र में दाखि़ल हुआ। वह अपने साथ प्रिंटिंग प्रेस भी ले आया। इससे पहले काग़ज़ बनाने की कला 751 ईस्वी में समरक़ंद में आ चुकी थी। इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात के तक़रीबन एक हज़ार साल बाद क़ुरआन और क़ुरआन संबंधी ज्ञान की हिफ़ाज़त प्रिंटिंग प्रेस के दौर में दाखि़ल हो गई। अब क़ुरआन के छपे हुए नुस्ख़े दस्तयाब होने लगे। छपाई के दौर में दाखि़ल होने के बाद क़ुरआन आखि़री तौर पर एक महफ़ूज़ किताब बन गया। इसके बाद क़ुरआन में किसी भी क़िस्म की तब्दीली का कोई इम्कान बाक़ी न रहा।
ख़त्मे नुबूव्वत के हक़ में यही सबसे बड़ा सुबूत है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आमद के बाद इस्तस्नाई तौर पर ऐसे असबाब पैदा हुए जो ख़ुदा की किताब को महफ़ूज़ करने के लिए यक़ीनी तदबीर की हैसियत रखते थे। इतिहास बताता है कि ये तदबीर अपने आखि़री अंजाम तक पहुंच गई यानि क़ुरआन पूरे तौर पर एक महफ़ूज़ किताब बन गया और जब ख़ुदा की हिदायत किताब की शक्ल में महफ़ूज़ हो जाए तो ऐसी किताब पैग़म्बर का बदल बन जाती है। इसके बाद किसी नए पैग़म्बर की आमद की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती।

रसूल की बेअसत का मक़सद
एक रिवायत के मुताबिक़ दुनिया में 1 लाख 24 हज़ार पैग़म्बर आए। उन तमाम पैग़म्बरों का मक़सद सिर्फ़ एक था, इंसान को ख़ुदा के तख़लीक़ी प्लान (creation plan of God) से आगाह करना। तमाम पैग़म्बरों ने मुश्तरक तौर पर यही काम किया। उन्होंने बताया कि ख़ुदा ने क्यों इंसान को पैदा किया है, इंसान की ज़िंदगी का मक़सद क्या है, मौत से पहले के दौरे हयात (pre-death period) में इंसान से क्या मतलूब है और मौत के बाद के दौरे हयात (post-death period) में उसके साथ क्या पेश आने वाला है। इसी को क़ुरआन में अन्ज़ार और तब्शीर कहा गया है। यही अन्ज़ार और तब्शीर तमाम पैग़म्बरों का मुश्तरक मिशन था। इसके सिवा कोई चीज़ अगर किसी पैग़म्बर की ज़िंदगी में नज़र आती है तो वह उसकी ज़िंदगी का एक इज़ाफ़ी पहलू (relative part)है न कि हक़ीक़ी पहलू (real part).
मौजूदा दुनिया में इंसान की दो ज़रूरतें हैं। एक है उसकी माद्दी ज़रूरत, जिसकी तकमील फ़िज़ीकल साइंस (physial science) के ज़रिये होती है। इंसान की दूसरी ज़रूरत यह है कि उसके पास वह ख़ुदाई हिदायत (divine guidence) मौजूद हो जिसका इत्तेबा करके वह आखि़रत में कामयाब ज़िंदगी हासिल करे। इस दूसरी ज़रूरत की तकमील पैग़म्बराना इल्हाम से होती है। समझने की ख़ातिर इसे हम रिलिजियस साइंस (religious science) कह सकते हैं।
फ़िज़िकल साइंस में आखि़री साइंटिस्ट (final scientist) का का लफ़्ज़ एक ग़ैर मुताल्लिक़ ;पततमसमअमदजद्ध लफ़्ज़ है। फ़िज़िकल साइंस में मुसलसल तौर पर तरक्क़ी का अमल जारी रहता है। इसलिए इस मैदान में कोई साइंटिस्ट आखि़री नहीं हो सकता। इसके बरअक्स रिलिजियस साइंस एक ही ख़ुदाई हिदायत (दिविने गुइदेंस) पर खड़ी होती है।
यह ख़ुदाई हिदायत बिना किसी फ़र्क़ के हमेशा एक ही रहती है। इसलिए रिलिजियस साइंस में यह ज़रूरी हो जाता है कि कोई आखि़री पैग़म्बर (फिनाल प्रोफेट) हो जो इंसान को ख़ुदा का आखि़री कलाम (final word) दे दे और इंसानियत का क़ाफ़िला उसकी रहनुमाई में भटके बग़ैर अपने सफ़र को लगातार जारी रखे।
ख़ुदा की तरफ़ से आने वाला हर पैग़म्बर एक ही अबदी (शाश्वत) हिदायत लेकर लोगों के पास आया लेकिन इंसानी तक़ाज़े के तहत जब पैग़म्बर की वफ़ात हुई तो उसके बाद उसकी लाई हुई ख़ुदाई हिदायत महफ़ूज़ न रह सकी। इसलिए बार बार यह ज़रूरत पेश आई कि नया पैग़म्बर आए और वह इंसान को दोबारा मुस्तनद (प्रामाणिक) हिदायत अता करे, मगर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद आपकी लाई हुई ख़ुदाई हिदायत, क़ुरआन और सुन्नत की शक्ल में पूरे तौर पर महफ़ूज़ हो गई, इसलिए आपके बाद किसी और नबी के आने की ज़रूरत बाक़ी न रही।
पैग़म्बर का आना एक बेहद संगीन मामला होता है। जब एक ज़िंदा पैग़म्बर मौजूद हो तो उस वक्त इंसान के लिए एक ही चुनाव (option) बाक़ी रहता है, यह कि वह पैग़म्बर का इक़रार करे। इक़रार न करने की हालत में पैग़म्बर के ज़माने के लोगों को हलाक कर दिया जाता है। इसलिए ख़ुदा की यह स्कीम नहीं कि दुनिया में हमेशा एक ज़िंदा पैग़म्बर मौजूद रहे। ख़ुदा की स्कीम के मुताबिक़ असल मक़सद यह है कि ख़ुदा की हिदायत हमेशा महफ़ूज़ और ग़ैर मुहर्रफ़ (क्षेपक रहित) हालत में मौजूद रहे। जब ख़ुदाई हिदायत का मतन (text) महफ़ूज़ हो जाए और उसमें तहरीफ़ (क्षेपक) का इम्कान बाक़ी न रहे तो ज़िंदा पैग़म्बर का मौजूद होना ग़ैर ज़रूरी हो जाता है। किताब इंसान के लिए एक बुक ऑफ़ रेफ़रेंस की हैसियत रखती है। जब एक महफ़ूज़ बुक ऑफ़ रेफ़रेंस (बुक ऑफ़ refrence) दस्तयाब हो जाए तो उसके बाद नए पैग़म्बर की आमद अपने आप ग़ैर ज़रूरी हो जाती है।

पैग़म्बराना हिदायत की अबदियत (शाश्वतता)
पैग़म्बर के ज़रिये ख़ुदा की जो हिदायत आती है, वह अपनी प्रकृति के ऐतबार से अबदी (शाश्वत) होती है। क़ुरआन में पैग़म्बराना हिदायत को रौशन सूरज से तशबीह दी गई है। (क़ु. 33, 46) इसका मतलब यह है कि पैग़म्बर की हिदायत उसी तरह अबदी होती है जिस तरह सूरज की रौशनी इंसान के लिए अबदी होती है।
इससे मालूम हुआ कि ज़माने की तब्दीली के हवाले से नए पैग़म्बर की ज़रूरत को बताना एक ग़ैर मुताल्लिक़ (irrelevent) बात है। ज़माने की तब्दीली या माद्दी तहज़ीब (भौतिक सभ्यता) की नई तरक्क़ी का कोई ताल्लुक़ नई नुबूव्वत से नहीं है। ज़माने की तब्दीली से अगर कोई अमली मसअला पैदा होता है तो वह सिर्फ़ नए इज्तिहाद की ज़रूरत को साबित करता है न कि नए नबी की ज़रूरत को मस्लन मोज़ों के ऊपर मसह के मसअले को लीजिए। पुराने ज़माने में मोज़े चमड़े के हुआ करते थे। उस वक्त चमड़े के मोज़े के हवाले से मोज़ों पर मसह का मसअला बताया गया। अब सनअती रेशों से तैयार किए हुए मोज़ों का ज़माना है। यह तब्दीली इज्तिहाद की ज़रूरत को बताती है न कि नए नबी की ज़रूरत को। इस तरह के बदले हुए हालात में सिर्फ़ यह काफ़ी है कि क़ुरआन और सुन्नत की रौशनी में मौजूदा हालत पर शरई हुक्म का नए सिरे से इन्तिबाक़ किया जाए। यही नए सिरे से इन्तिबाक़ इज्तिहाद है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब मक्का में थे तो उस वक्त वहां आबपाशी (इर्रिगतिओनकी प्रॉब्लम थी। लोगों ने कहा कि आप ख़ुदा के पैग़म्बर हैं। आप ख़ुदा की मदद से हमारे आबपाशी के मसअले को हल कर दीजिए।
आपने फ़रमाया-‘मा बिहाज़ा बुइस्तु इलैइकुम‘ (अस्-सीरतुन्-नब्विया लि-इब्ने हिशाम, जिल्द 1 सफ़्हा 316) यानि मैं तुम्हारे पास इस काम के लिए नहीं भेजा गया हूं।
इ हवे नोट सेंत तो यू फॉर थिस पुर्पोसे.

इसी तरह जब आप मदीना में था तो वहां के हालात के ऐतबार से कुछ मसायल पैदा हुए जो बाग़बानी से ताल्लुक़ रखते थे। वहां के लोगों ने इस मामले में आप से मशविरा हासिल करना चाहा। आपने दोबारा उन्हें वही जवाब दिया जो आप मक्का के लोगों को दे चुके थे। आपने फ़रमाया-‘अन्तुम अआलमु बिअम्रि दुनियाकुम‘ (सही मुस्लिम, हदीस नं. 2361) यानि तुम अपनी दुनिया के मामले में ज़्यादा जानते हो।
यू क्नोव बेत्टर अबाउट your वोर्द्ली मत्तेर्स.

आबपाशी, बाग़बानी, फ़ने तामीर और इंडस्ट्री जैसी चीज़ों का ताल्लुक़ इंसानी तहज़ीब से है। तहज़ीब (सभ्यता) का अमल हमेशा इंसानी रिसर्च और जुस्तजू पर आधारित होता है। इस मामले को ख़ुदा ने इंसान के अपने ऊपर छोड़ दिया है लेकिन जहां तक हिदायत का मामला है, उसका ताल्लुक़ ख़ुदाई वह्य से है। इंसान की यही ज़रूरत है जिसके लिए ख़ुदा ने वह्य और नुबूव्वत का सिलसिला जारी किया।
मशहूद फ्ऱांसीसी लेखक डा. अलक्सिस केरिल (वफ़ात 1944) ने 1935 में एक किताब पब्लिश की। इस किताब का नाम ‘इंसान अज्ञात‘ (मन थे Unknown) था, मगर ज़्यादा सही तौर पर इस किताब का नाम ‘हिदायत अज्ञात‘ (गुइदेंस the Unknown) होना चाहिए। इंसान की सही हिदायत का ताल्लुक़ ग़ैबी मामले से है। यह सिर्फ़ ख़ुदा है जो ग़ैब का इल्म रखता है। इसलिए सिर्फ़ ख़ुदा ही इंसान को सही रहनुमाई दे सकता है। माज़ी (गुज़रे हुए ज़माने) में पैग़म्बरों के ज़रिये यही रहनुमाई इंसान को दी जाती रही।
अब इस ख़ुदाई रहनुमाई का मुस्तनद मतन क़ुरआन की शक्ल में महफ़ूज़ है। अब क़ियामत तक के लिए क़ुरआन, नुबूव्वत का बदल है। अब ज़रूरत सिर्फ़ यह है कि इंसान इस मुस्तनद (authentic) कलामे इलाही को पढ़े, वह उस पर विचार करे और क़ियामत तक उससे अपने लिए रहनुमाई लेता रहे। यही वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया-‘जि‘अतु फ़ख़तम्तुल्-अम्बिया (सही बुख़ारी, हदीस नं. 3341) यानि मैं आया और मैंने नबियों की आमद का सिलसिला ख़तम कर दिया।

नुबूव्वत की दलील
पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब मक्का में 570 ई. में पैदा हुए। आपकी उम्र चालीस साल हुई तो 610 ई. में ख़ुदा ने आपको अपना पैग़म्बर बनाया और आप पर क़ुरआन उतारा। आपका मिशन तौहीद का मिशन था। इस मिशन के लिए आपने तक़रीबन 23 साल तक काम किया। इसके बाद 632 ई. में मदीना में आपकी वफ़ात हुई। आपने इस्तस्नाई तौर पर अपने साथियों की एक बड़ी जमाअत बनाई, जिन्हें असहाबे रसूल कहा जाता है। असहाबे रसूल की इस जमाअत ने आपके मिशन को तकमील (completion) के दर्जे तक पहुंचाया।

रसूल और ख़ातमुल अम्बिया
क़ुरआन और हदीस के बयान के मुताबिक़ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम न सिर्फ़ नबी थे बल्कि वह ख़ातमुल अम्बिया भी थे यानि आपके बाद कोई और नबी आने वाला नहीं। आपके बारे में ख़ातमुल अम्बिया होने का यह ऐलान सिर्फ़ एक ऐलान नहीं, वह आपके पैग़म्बरे ख़ुदा होने पर एक ऐतिहासिक दलील भी है। आपने सातवीं सदी के शुरू में यह ऐलान किया कि मैं ख़ातमुल अम्बिया हूं। इसके बाद से लेकर अब तक कोई शख्स नबी होने का दावेदार बनकर नहीं उठा। गोया कि आपके अल्फ़ाज़ इतिहास का फ़ैसला बन गए।
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पहले या आपके बाद कोई शख्स ऐसा पैदा नहीं हुआ जो अपने बाद आने वाले ज़माने के बारे में एक बयान दे और उसका यह बयान उसके बाद इतिहास का हिस्सा बन जाए। मिसाल के तौर पर कार्ल मार्क्स (वफ़ात 1883) ने अपनी स्टडी की बुनियाद पर यह ऐलान किया था कि कम्युनिस्ट इन्क़लाब सबसे पहले फ्ऱांस में आएगा मगर उसका यह ऐलान हक़ीक़त न बन सका। इसी तरह इतिहास में कई लोग ऐसे गुज़रे हैं, जिन्होंने अपने भविष्य के बारे में बोलने की जुर्रत की मगर इस क़िस्म की हरेक भविष्यवाणी ग़लत साबित हुई। वह तारीख़ी वाक़या न बन सकी।
इन सबके दरम्यान सिर्फ़ एक इस्तस्ना है और वह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का है। आपने सातवीं सदी ईस्वी के रूबअ अव्वल में मदीना में ऐलान किया कि मेरे बाद कोई और नबी आने वाला नहीं है। यह बात हैरतअंगेज़ तौर पर इतिहास का एक वाक़या बन गई। यह इस्तस्ना बेशक इस बात का सुबूत है कि आप ख़ुदा की तरफ़ से भेजे हुए रसूल थे और इसी के साथ नबियों के ख़ातम भी।
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नुबूव्वत का ऐलान क़ुरआन में बार बार किया गया है, मसलन फ़रमाया-‘मा काना मुहम्मदुन अबा अहादिम्-मिर्रिजालिकुम वलाकिर्-रसूलल्लाहि व ख़ातमन्-नबिय्यीन‘ (क़ु. 33, 40)
इस आयत के मुताबिक़ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पैग़म्बर भी थे और ख़ुदा के आखि़री पैग़म्बर भी। इसी तरह ख़ुद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह ऐलान किया कि ‘अना अन्नबिय्यु ला कज़िब‘ (सही बुख़ारी, हदीस नं. 2877) यानि मैं नबी हूं, इसमें कोई शक नहीं है।
इसी तरह एक रिवायत हदीस की कई किताबों, सही मुस्लिम, अबू दाऊद, तिरमिज़ी, मुस्नद अहमद वग़ैरह में आई है। सही बुख़ारी के अल्फ़ाज़ ये हैं-‘अना ख़ातमन्-नबिय्यीन‘ (सही बुख़ारी हदीस नं. 3342) यानि मैं आखि़री नबी हूं, मेरे बाद कोई और नबी आने वाला नहीं।

नुबूव्वत का दावा नहीं
यह बात निहायत अहम है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद पूरे तारीख़ी दौर में सारी दुनिया में कोई भी आदमी अपनी ज़बान से इन अल्फ़ाज़ में नुबूव्वत का दावा करे कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह हज़रत मूसा, हज़रत ईसा मसीह और हज़रत मुहम्मद, ख़ुदा के पैग़म्बर थे।
I am the prohet of God in the same sense in which Moses and Jesus and Muhammad claimed they were prophets of God.

और जब कोई शख्स इन अल्फ़ाज़ में नुबूव्वत का दावा करने वाला नहीं उठा तो पैग़म्बरे इस्लाम का यह दावा अपने आप एक साबितशुदा हक़ीक़त बन गया। आपके इस ऐलान के बाद तक़रीबन चौदह सौ साल गुज़र चुके हैं लेकिन अभी तक कोई भी शख्स ऐसा नहीं उठा जो अपनी ज़बान से यह ऐलान करे कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं, जिस तरह हज़रत मूसा, हज़रत मसीह और हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के पैग़म्बर थे। इस तरह आपका दावा गोया कि बिना किसी मुक़ाबले के अपने आप साबित हो गया।
इस सिलसिले में कुछ नाम बताए जाते हैं, जिनके बारे में यह समझा जाता है कि उन्होंने नुबूव्वत का दावा किया मगर यह ख़याल दुरूस्त नहीं। मसलन कहा जाता है कि आपके ज़माने में यमन के मुसैलमा (वफ़ात 633 ई.) ने नबी होने का दावा किया लेकिन किताबों से मालूम होता है कि उसने किसी मुस्तक़िल नुबूव्वत का दावा नहीं किया था। उसने सिर्फ़ यह कहा था कि मैं मुहम्मद के साथ नुबूव्वत में शरीक किया गया हूं। (इन्नी क़द उशरिक्तु फ़िल अम्रि मअ मुहम्मद), इस तरह उसने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को असल हैसियत दे दी और जब मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उसकी शिरकते नुबूव्वत से इन्कार किया तो उसका दावा अपने आप ख़त्म हो गया।
इसी तरह आपके ज़माने में यमन में एक और शख्स पैदा हुआ, जिसके मुताल्लिक़ कहा जाता है कि उसने नबी होने का दावा किया था। यह शख्स अस्वद अलअन्सी (वफ़ात 632) था लेकिन तारीख़ की किताबों से यह साबित नहीं होता कि उसने ख़ुद अपनी ज़बान से यह कहा था कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं जिस तरह मुहम्मद ख़ुदा के पैग़म्बर थे। मेरे मुताले के मुताबिक़ उसका केस इरतदाद और बग़ावत का केस था न कि दावा ए नुबूव्वत का केस।
इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद अबूत्तय्यब अलमुतनब्बी (वफ़ात 965 ई.) के बारे में कहा जाता है कि उसने अपने नबी होने का दावा किया था मगर यह दुरूस्त नहीं है। हक़ीक़त यह है कि अलमुतनब्बी एक शायर था और निहायत ज़हीन आदमी था। उसने मज़ाक़िया तौर पर एक बार अपने को नबी जैसा बताया और बाद में उसने अपने क़ौल को ख़ुद ही वापस ले लिया।
इसी तरह कहा जाता है कि मौजूदा ज़माने में ऐसे दो अफ़राद पैदा हुए, जिन्होंने ज़िक्र किए गए अल्फ़ाज़ में अपने नबी होने का दावा किया-‘बहाउल्ला ख़ां (वफ़ात 1892) और मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी (वफ़ात 1908), मगर तारीख़ी रिकॉर्ड के मुताबिक़ यह बात दुरूस्त नहीं है।
बहाउल्ला ख़ां ने सिर्फ़ यह कहा था कि मैं मज़्हरे हक़ हूं‘, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं। इसी तरह मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद क़ादियानी ने कभी अपनी ज़बान से यह नहीं कहा कि मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं, जिस तरह हज़रत मूसा, हज़रत मसीह और हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के पैग़म्बर थे। उन्होंने सिर्फ़ यह कहा था कि मैं ज़िल्ले नबी हूं यानि मैं नबी का साया हूं। इस तरह के क़ौल को एक क़िस्म की दीवानगी तो कहा जा सकता है लेकिन इसे हक़ीक़ी माअनों में नुबूव्वत का दावा नहीं कहा जा सकता।

हिंदू गुरूओं की मिसाल
मौजूदा ज़माने में हिंदुओं में कुछ ऐसे अफ़राद पैदा हुए जिनके मुताल्लिक़ कहा गया कि वे वक्त के पैग़म्बर हैं मगर यह बात भी हक़ीक़त के खि़लाफ़ है। मसलन दिल्ली के निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह (वफ़ात 1980) के बारे में एक पम्फ़लेट मुझे मिला, जिसमें निरंकारी बाबा को वक्त का पैग़म्बर (prophet of the time) लिखा गया था। मैं उनसे उनके दिल्ली आश्रम में मिला, मैंने उनकी तक़रीर सुनी और उनसे बातचीत की लेकिन मालूम हुआ कि निरंकारी बाबा के कुछ श्रद्धालु उनके बारे में ऐसा कहते हैं लेकिन ख़ुद निरंकारी बाबा ने अपनी ज़बान से यह दावा नहीं किया कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं।‘
इसी तरह त्रिवेन्द्रम, केरल में एक मशहूर हिंदू गुरू थे। उनका नाम ब्रह्मा श्री करूणाकरण (वफ़ात 1999) था। त्रिवेन्द्रम में उनका एक बड़ा आश्रम था, जिसका नाम ‘शांति गिरी आश्रम‘ है। उनके मिशन के कुछ लोग मुझसे दिल्ली में मिले। उन्होंने कहा कि हमारे बाबा जी वक्त के पैग़म्बर हैं। इसके बाद मैंने ख़ुद केरल का सफ़र किया और त्रिवेन्द्रम में उनके आश्रम में उनसे मिला। मैंने उनके श्रद्धालुओं से पहले ही बता दिया था कि मैं किस मक़सद से वहां जा रहा हूं।
मैंने यह सफ़र फ़रवरी 1999 में किया था। शांति गिरी आश्रम में पहुंच कर मैं उनसे मिला। मुझे एक ख़ास कमरे में ले जाया गया, जहां बाबा जी के साथ उनके तक़रीबन 50 श्रद्धालु मौजूद थे। बातचीत के दौरान मैंने बाबा जी ब्रह्मा श्री करूणाकरण से एक सवाल किया, उसका जवाब उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में दिया। वह सवाल व जवाब यह था-
Q- Do you claim that you are a prophet of God in the same sense in which Moses and Jesus and claimed they were prophets of God.
A- No, I don't make any such claim.

इस गुफ़्तगू में मैंने डायरेक्ट तौर पर उनसे पूछा कि क्या आप यह दावा करते हैं कि आप ख़ुदा के पैग़म्बर हैं। उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि नहीं, मैं ऐसा दावा नहीं करता। जब उन्होंने इस तरह कह दिया तो उसके बाद मेरा सवाल व जवाब ख़त्म हो गया। उसके बाद मैं ख़ामोशी के साथ बैठकर उनकी बातें सुनता रहा और फिर चला आया। इस सफ़र में शांति गिरी आश्रम में मैं दो दिन ठहरा।
क्या वजह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद पूरी तारीख़ में कोई ऐसा शख्स नहीं उठा जो अपनी ज़बान से यह दावा करे कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं‘। इस पर ग़ौर करते हुए मेरी समझ में यह बात आती है कि ऐसा कलाम इतना ज़्यादा ग़ैर मामूली है कि कोई ग़ैर पैग़म्बर इसे अपनी ज़बान से अदा नहीं कर सकता।
जिस तरह ख़ुदा के सिवा कोई और शख्स यह नहीं कह सकता कि मैं ख़ुदा ए रब्बुल आलमीन हूं, इसी तरह कोई शख्स यह भी नहीं कह सकता कि मैं ख़ुदा का भेजा हुआ पैग़म्बर (prophet of God) हूं। पैग़म्बरी का दावा सिर्फ़ कोई सच्चा पैग़म्बर ही कर सकता है। कोई ग़ैर पैग़म्बर शख्स दूसरे दूसरे अल्फ़ाज़ बोल सकता है लेकिन वह यह नहीं कह सकता कि ‘मैं ख़ुदा का पैग़म्बर हूं, जिस तरह हज़रत मूसा, हज़रत मसीह और हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के पैग़म्बर थे।

पैग़म्बर एक तारीख़ी इस्तस्ना (
अपवाद)
पैग़म्बर के पैग़म्बर होने का सुबूत यह है कि वह पूरी इंसानियत के मुक़ाबले में एक इस्तस्ना (exception) होता है। इस्लाम की साफ़ तालीम के मुताबिक़ ख़ुदा के जितने भी पैग़म्बर आए, सब के सब दर्जे के ऐतबार से यकसां थे। (क़ु. 2, 185) लेकिन रोल के ऐतबार से उनके दरम्यान फ़र्क़ था। पिछले पैग़म्बरों का रोल ज़मानी रोल था और पैग़म्बर आखि़रूज़्ज़मां सल्लल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का रोल अबदी (शाश्वत) था।
क़ुरआन और हदीस की तसरीह के मुताबिक़ किसी पैग़म्बर को दूसरे पैग़म्बर पर शख्सी फ़ज़ीलत हासिल न थी। (ला तफ़ज़्ज़लु बैइना अम्बियाइल्लाह, सही मुस्लिम हदीस नं. 4383)
पैग़म्बर होने के ऐतबार एक का जो दर्जा था, वही दूसरे का दर्जा भी था लेकिन अपने सुपुर्द काम की निस्बत से हरेक की ज़रूरतें अलग अलग थीं। इसी वजह से हरेक को अलग क़िस्म के साधन दिए गए। मसलन हज़रत मूसा की मदद असा की क़ूव्वत के ज़रिये की गई तो हज़रत मसीह की मदद बीमारी दूर करने की क़ूव्वत के ज़रिये।
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और दूसरे नबियों के दरम्यान एक साफ़ फ़र्क़ यह है कि दूसरे तमाम पैग़म्बर इतिहास के रिवायती दौर में आए और उसके रिवायती दौर में ही उनका पैग़म्बराना रोल ख़त्म हो गया। इसके मुक़ाबले में मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का मामला यह है कि आप तारीख़ के रिवायती दौर में आए लेकिन व्यापक अर्थों में आपकी नुबूव्वत तारीख़ के साइंसी दौर तक जारी रही। इसी वजह से मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ख़ुदा के मन्सूबे को पूरा करने के लिए जो चीज़ें दी गईं, वे पिछले दौर की निस्बत अलग थीं।
रोल के इसी फ़र्क़ की बुनियाद पर हम यह देखते हैं कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और दूसरे नबियों के दरम्यान दलीलों की निस्बत से फ़र्क़ पाया जाता है यानि पिछले नबियों के पास अगर रिवायती क़िस्म की दलीलें हैं तो पैग़म्बरे इस्लाम के पास ग़ैर रिवायती क़िस्म की दलीलें।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पहले जितने पैग़म्बर आए, वे सब तारीख़ के रिवायती दौर में आए। इसके मुक़ाबल में पैग़म्बरे इस्लाम तारीख़ के उस दौर में आए जब कि साइंसी दौर शुरू होने वाला था। इस बुनियाद पर यह हुआ कि दूसरे पैग़म्बरों को हिस्सी मौअज्ज़े (physical miracle) दिए गए। ये मौअज्ज़े सिर्फ़ पैग़म्बर के ज़माने के लोगों (contemporary) के लिए दलील थे। इन मौअज्ज़ों की तार्किक हैसियत देखने पर थी। पैग़म्बर के बाद वह मौअज्ज़े ख़त्म हो गया। इसलिए वह बाद की नस्लों के लिए दलील भी न रहा। मौअज्ज़े का दलील होना उस ज़माने के लोगों के लिए है जो उसे देखें। वह बाद के ज़माने के उन लोगों के लिए नहीं है जो उसे सिर्फ़ सुनें या पढ़ें मगर उन्होंने उसे अपनी आंखों से न देखा हो।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और दूसरे पैग़म्बरों के दरम्यान अगरचे दर्जे के ऐतबार से फ़र्क़ न था लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम तारीख़ के एक ऐसे दौर में आए जबकि आपकी दावत और आपकी ज़िंदगी से मुताल्लिक़ हर चीज़ महफ़ूज़ (preserve)रह सकती थी। इस वजह से ऐसा हुआ कि आपकी नुबूव्वत एक जारी रहने वाली नुबूव्वत बन गई। हर पैग़म्बर को ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बरी के साथ दलील भी दी जाती थी, जिसे क़ुरआन में ‘बुरहान‘ कहा गया है। यह दलील पिछले पैग़म्बरों के लिए हिस्सी मौअज्ज़े (physical miracle) की सूरत में होती थी लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम के लिए यह दलील तारीख़ की सूरत में है, एक ऐसी इस्तस्नाई तारीख़ जो किसी और इंसान के साथ कभी जमा नहीं हुई।

नुबूव्वते मुहम्मदी का सुबूत
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नुबूव्वत का सुबूत दूसरे पैग़म्बरों की तरह यह है कि आपकी ज़िंदगी एक तारीख़ी इस्तस्ना (historical exception) की हैसियत रखती है। आपकी यही इस्तस्नाई हैसियत है जिसे क़ुरआन की सूरा ‘अल-इस्रा‘ में ‘मक़ामे महमूद‘ (praised state) बताया गया है (क़ु. 17,79), मक़ामे महमूद से मुराद मक़ामे ऐतराफ़ है। इसका मतलब यह है कि आपको इंसानों के दरम्यान पूरे ऐतराफ़ का दर्जा हासिल होगा। आपके गिर्द ऐसी इस्तस्नाई तारीख़ इकठ्ठा होगी कि ख़ुद इंसान के अपने माने हुए मैयार के मुताबिक़ आपकी नुबूव्वत एक मुसल्लमा (स्वीकृत) नुबूव्वत बन जाएगी।
क़ुरआन में ‘मक़ामे महमूद‘ की आयत से मुराद पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं। आपके बारे में मशहूर अमेरिकी डाक्टर माइकल हार्ट (Michael H. Hart) ने अपनी किताब में लिखा है कि ‘आप इतिहास के अकेले इंसान हैं जो इन्तिहाई हद तक कामयाब रहे, मज़हबी सतह पर भी और दुनियावी सतह पर भी‘,
He was the only man in history who was supremly successful on both the religious and secular levels.

Tuesday, January 17, 2012

Love of God

अमेरिका का सफ़र
25 जून 2011 की सुबह को नमाज़ ए फ़ज्र के बाद डा. वक़ार आलम के घर पर दोबारा एक नशिस्त हुई। इस नशिस्त में मैंने चार चीज़ें बताईं.
1. डिस्कवरी के दर्जे में अल्लाह को पाना.
2. अल्लाह से मुहब्बत (Strong affection) के दर्जे में ताल्लुक़.
3. हर मौक़े को प्वाइंट ऑफ़ रेफ़रेंस बनाकर ज़िक्र व दुआ करना.
4. मैंने अपना तजर्बा बताते हुए कहा कि 1983 में अमेरिका में मुझे न्यूयॉर्क के एयरपोर्ट से वापस कर दिया गया था। (तफ़सील के लिए मुलाहिज़ा हो , सफ़रनामा, जिल्द अव्वल, सफ़्हा 470) , लेकिन मैंने उस वाक़ये से नकारात्मक असर नहीं लिया बल्कि यह दुआ की कि आखि़रत में अगर ऐसा हो कि जन्नत के गेट से मुझे वापस कर दिया जाए तो मेरा क्या हाल होगा ?

अलरिसाला फ़रवरी 2012 सफ़्हा 3

एक मजलिस में मैंने कहा कि मौजूदा ज़माने के मुसलमानों में क़ुरआन की एक तालीम बिल्कुल गुम हो गई है। क़ुरआन में बताया गया है कि तमाम नबी हिदायत पाए हुए थे और हर नबी की ज़िंदगी में हिदायत का नमूना है। (क़ुरआन, 6, 90)
इसका मतलब यह है कि मुख़तलिफ़ पैग़म्बर मुख़तलिफ़ हालात में आए। ये सब अपने अपने ऐतबार से नमूना हैं। जब भी किसी जगह पिछले पैग़म्बर जैसे हालात पाए जाएं तो वहां हालात की निस्बत से उस पैग़म्बर का नमूना क़ाबिल ए इन्तबाक़ हो जाएगा, मगर मुसलमान इस तालीम से फ़ायदा नहीं उठा सके।
Man proposes, God disposes

यही बात हज़रत अली ने ज़्यादा बामाअना तौर पर इस तरह कही है,
अर्र्फ़्तु रब्बी बिफ़सखि़ल अज़ाएम.
मैंने कहा कि मज़्कूर क़ौल में सिर्फ़ वाक़ये का ज़िक्र है, जबकि हज़रत अली के क़ौल में इस क़िस्म के वाक़ये से मारिफ़त का पहलू लिया गया है।

अमेरिका के मुसलमानों की सबसे बड़ी तन्ज़ीम ‘इसना‘ (ISNA) है। अमेरिका में इस का काम काफ़ी फैला हुआ है। इस तन्ज़ीम का पूरा नाम इस तरह है-
Islamic society of North America

जुलाई 2011 के पहले हफ़ते में इसका सालाना प्रोग्राम शिकागो में हुआ। इस मौक़े पर हमारे साथियों ने यहां बुक स्टॉल लगाया। इस स्टॉल के ज़रिये बड़े पैमाने पर लोगों के साथ इंटरेक्शन हुआ और क़ुरआन और दूसरी किताबों की इशाअत हुई। इसना के इस प्रोग्राम में मुझे एक लेक्चर देने के लिए बुलाया गया था। यह लेक्चर अंग्रेज़ी ज़बान में था। इस लेक्चर का उन्वान ये था,

Love of God

इस प्रोग्राम का इंतेज़ाम एक बड़े हॉल में किया गया था। मेरे सिवा बोलने वाले इसमें दो और थे। एक मर्द और एक औरत। ये दोनों अरब थे। तक़रीर के बाद लोगों का आम तास्सुर यह था कि इन दोनों साहिबान की बात अस्पष्ट थी, चुनांचे वो समझ में न आ सकी। मेरी तक़रीर के बारे में लोगों की राय यह थी कि वह पूरी तरह स्पष्ट थी और वह बख़ूबी तौर पर समझ में आई।
मेरी तक़रीर का ख़ुलासा था कि ख़ुदा से मुहब्बत का एक पहलू यह है कि बंदे को अपने रब से गहरा दिली ताल्लुक़ (Strong affection) हो। इसी को क़ुरआन में अशद्दु हुब्बल्-लिल्लाह (2, 165) कहा गया है। ख़ुदा से मुहब्बत का दूसरा पहलू इत्तेबा ए रसूल है। इसे क़ुरआन इन अल्फ़ाज़ में बताया गया है-
‘क़ुल इन कुन्तुम तुहिब्बूनल्लाहा फ़त्तिबिऊनी युहबिब्कुमुल्लाह.‘ (3, 31) यानि कहो, अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत करते हो तो तुम मेरी पैरवी करो। अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा। इस सिलसिले में , मैंने कहा कि रसूल की इत्तेबा का सबसे बड़ा पहलू यह है कि पैग़म्बराना नमूने के मुताबिक़ अल्लाह की तरफ़ बुलाने का काम किया जाए।
अलरिसाला फ़रवरी 2012 सफ़्हा २४